गायत्रीव्याख्या विवृतिः | GAYATRI BYAKHYA BIBRUTI HINDI BOOK PDF FREE DOWNLOAD

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पुस्तक का संक्षिप्त विवरण:

श्रीश्रीजीवगोस्वामि प्रणीत विवृति समन्वित "अग्निपुराणान्तर्गता गायत्री व्याख्या” नामक ग्रन्थ प्रकाशित हुआ। इसमें अग्निपुराणीय २. २१६ अध्यास से उद्धृत केवलमात्र १७ श्लोक की व्याख्या है।

प्रथम श्लोक - "गायत्युक्थानि शास्त्राणि भर्ग प्राणांस्तथैव च । ततः स्मृतेयं गायत्री सावित्री यत एव च। प्रकाशिनी सा सवितु र्वाग्रूयत्वात् सरस्वती ।।"१॥

की विवृति में श्रीजीवगोस्वामिचरण उक्थ, भर्ग. सरस्वती प्रभृति शब्द की निरुक्ति प्रदान किए हैं। प्रत्येक पद का अर्थ सरल रूप से प्रदर्शित हुआ है। प्राण, गायत्री एवं इसमें गायत्नी के

गायत्त्रीस्थ 'भर्ग' शब्द से स्वप्रकाश 'ज्योतिः' विशेष ही वाच्य है। वह ही 'तत्' पदवाच्य प्रसिद्ध परमब्रह्म हैं। 'वरेण्य' शब्द से सर्वश्रेष्ठ सर्वाश्रय रूप वस्तु है। वह क्या है? सूर्य्य चन्द्र प्रभृति का भी प्रकाशक अथच स्वयं प्रकाश बस्तु है। जो स्वर्गापवर्ग कामना में सर्वदा वाञ्छित है।

सर्वदा करणीय क्या है ? जाग्रत् स्वप्न विजित, तुरीयावस्था जीव से भी परतम वस्तु है। मैं उन वरेण्य भर्गाख्य ज्योतिः का ध्यान करता हूँ।

'भर्ग' वस्तु को अवगत कराने के लिए कहते हैं- वह नित्य अर्थात् सर्वथा शुद्ध, जीववत् संसारित्व विहीन है। सर्वदा बोधयुक्त है। एक, किन्तु जीववत् अनेक नहीं है। 'अधीश्वर' सर्वशक्ति युक्त है। 'अहं' शब्द ब्रह्म का विशेषण होनेसे उसका बोध कैसा होता है ? देवता अर्थात् "देवभावापन्न न होकर देवाचना न करे" इस नीति के अनुसरण से कहते हैं। मैं परमज्योति 'ब्रह्म' हैं, इससे तादात्म्य - तन्मयत्वभावना प्रदर्शित हुई है।

'ध्यायेमहि" शब्द में बहुवचन प्रयोग का तात्पर्य्य क्या है ? मैं ही केवल स्वप्रकाश ब्रह्म वस्तु का ध्यान करता हूँ, यह नहीं, किन्तु हम सब जीववर्ग उनका ध्यान करते हैं। ध्यान की आवश्यकता क्या है ? संसार से मुक्त होकर उनको प्राप्त करना ही एकमात्र तात्पर्य्य है।

मन्त्रस्थ 'तत्' पद की विशेष व्याख्या करते हैं।- 'भर्ग' पदवाच्य ज्योतिः ही उक्त ब्रह्मवस्तु हैं, वह ही भगवान् विष्णु हैं, जो जगत् के जन्म. स्थिति, लय का कारण हैं।

मन्त्रस्थ 'प्रणव' से आरम्भ कर 'तत्' पद पर्य्यन्त 'धीमहि' शब्द के सहित अन्वय करना होगा। कारण कार्य्य से अनन्य होने के कारण स्वयं प्रणवार्थ रूप एवं भू. भुव एवं स्वरादि रूप वह तत्त्व सविता देवता का 'वरेण्य भर्ग' है, उनका ध्यान करता हूँ। इस विषय में जिन की विप्रतिपत्ति है, उनको भी निज मत में आकृष्ट कर रहे हैं। उक्त तत्त्व को शिव, शक्ति, सूर्य्य, अग्नि प्रभृति आख्या से अभिहित करने पर भी वेदादि में किन्तु अग्नयादि सर्वदेवमय रूप में श्रीविष्णु ही कीर्तित्तत हुए हैं। सुतरां विष्णु एवं सविता-कारण एवं कार्य्य होने पर भी तादात्म्य भाव से उभय का अभेद प्रदर्शित हुआ है। वह 'भर्ग' वस्तु 'विष्णु' विश्वात्मक देवता, सविता का परम-पद- आश्रय हैं। 'धीमहि' शब्द का अर्थ धारणा करता हूँ, पोषण करता हूँ।

हमारे अर्थात् निखिल प्राणि समूह के बुद्धि वृत्ति समूह को प्रेरण करें, अर्थात् सूर्याग्नि रूपी वह भर्गाख्य विष्णु तेज, - निखिल भोक्ताओं को दृष्टादृष्ट समस्त कर्मफल भोग करने के निमित्त प्रेरणा प्रदान करे ।

प्रेरणा प्रदान का हेतु क्या है?- पूर्वोक्त विष्णुरूप ईश्वर के द्वारा प्रेरित होकर ही जीवनिचय स्वर्ग एवं नरक गमन करते हैं। उक्त वार्ता का समर्थन अपर श्रुति के द्वारा करते हैं, - महत्तत्त्व से आरम्भ कर परिमा

Details of Book :-

Particulars

Details (Size, Writer, Dialect, Pages)

Name of Book:गायत्रीव्याख्या-विवृतिः | Gayatri Byakhya Bibruti
Author:Sri Haridas Shastri
Total pages:52
Language: हिंदी | Hindi
Size:1.6 ~ MB
Download Status:Available


Gayatri Byakhya Bibruti written by Sri Haridas Shastri | Ebook size 1.6 MB | Includes 52 Pages | Find the free PDF download link of “Gayatri Byakhya Bibruti” below and read it right away.

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