Free Hindi Book Shamshan Champa In Pdf Download
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पुस्तक का संक्षिप्त विवरण:
तश्तरी में धरे पानी में तैर रहे वेले की सुगन्ध दवा की तीव्र सुगन्ध त डूबकर रह गई थी। भगवती की उदास दृष्टि, रिक्त कमरे की दीवारों से सरसराती, फिर अपने पीले हाथों पर उतर आई, इस रत्त्वक-शून्य कंकाल के किस छिद्र में उसके प्राण अटककर रह गए थे? असाध्य रोग की यन्त्रणा से दुर्वह तो उसकी स्मृतियों की यन्त्रणा थी, अकेली पड़ी रहती तो कभी यही यन्त्रणा असह्य हो उठती थी। कुछ ही देर पहले चंपा उसे कैप्सूल खिलाकर ड्यूटी पर चली गई थी। अस्पताल की बड़ी-सी गाड़ी उसे लेकर गई तो भगवती का दिल डूबने लगा। एक बार जी में आया, चीखकर उसे रोक दे-"आज तू अस्पताल मत जा बेटी, तबीयत उसे स्वयं ही क्षुब्ध कर उठी थी । उसकी तबीयत क्या आज ही ऐसे घबड़ा रही थी? जब भी चंपा ड्यूटी पर जाने लगती, उसे यही लगता था कि पुत्री के लौटने तक निश्चय ही उसे कुछ हो जाएगा। क्या पता, यही उसे अन्तिम बार देख रही हो? इसी से वह दुःखद सम्भावना उसे विचलित कर उठती थी। किन्तु छलनामयी मृत्यु तो उसे बिल्ली के क्रूर पंजों में दबी चुहिया की ही भाँति खिला-खिलाकर मार रही थी। आज जब वह उसे दवा खिलाने आई तो भगवती बड़ी देर तक उसकी ओर देखती रही थी।
"क्या देख रही हो ऐसे, ममी?" हँसकर उसने पूछा तो भगवती ने यत्न से ही अपनी सिसकी को रोक लिया था। कैसा अपूर्व रूप था इस लड़की का! न हाथ में चूड़ियाँ, न ललाट पर बिन्दी, बिना किनारे की सफेद लेस लगी साड़ी और दुबली कलाई पर मर्दाना घड़ी, यही तो उसका श्रृंगार था, फिर भी जब यहाँ अपनी पहली नौकरी का कार्यभार संभालने आई तो स्टेशन पर लेने आए नारायण सेनगुप्त ने हाथ जोड़कर भगवती को ही नई डाक्टरनी समझ सम्बोधित किया था, "बड़ी कृपा की आपने, इतनी दूर हमारे इस शहर में तो बाहर की कोई डाक्टरनी आने को राज़र्जी ही नहीं होती थीं। एक दो आई भी तो टिकी नहीं। पर आपको विश्वास दिलाता हूँ, हम आपको किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देंगे।"
"डाक्टरनी मैं नहीं हूँ, मेरी पुत्री चंपा आपके अस्पताल का चार्ज लेगी।" हँसकर भगवती ने कहा, तो सेनगुप्त उसकी ओर अविश्वास से देखते ही रह गए थे। यह लड़की क्या उनके उस विराट अस्पताल का भार सँभाल पाएगी? एक-एक दिन में कभी सात-आठ लेबर केसेज़ निबटाने पड़ते थे पिछली डॉक्टरनी को, इससे वहाँ कोई टिकती ही नहीं थी और फिर क्या उस सुन्दरी डॉक्टरनी का मन उस रूखे शहर में लग सकता था? किन्तु चंपा को तो ऐसे ही जनशून्य एकान्त की कामना थी। उसे अपना वह छोटा-सा बेंगला बेहद प्यारा लगा था। छोटे-से अहाते में धरे क्रोटन के गमले, लॉन में बिछी मखमली दूब और एक-दूसरे से गुँथे खड़े दो ताड़ के वृक्षों की सुदीर्घ छाया! पास में ही दूसरा बेंगला था डॉक्टर मिनती घोष का। वही उसकी सहायिका डॉक्टरनी थी। बड़ी-बड़ी आँखें, बड़े-बड़े जुड़े और विकसित देहयष्टि, उस रोबदार डॉक्टरनी के सम्मुख चंपा और भी बच्ची लगती थी।
जिस दिन चंपा ने चार्ज लिया, उसी दिन बेचारी लड़की को अस्पताल की विचित्र ड्यूटी ने चूसकर रख दिया था। न खाने का समय, न सोने का। फिर तो उसकी वह ड्यूटी भगवती के नित्य का सिर-दर्द बन गई। कभी वह सुबह दो टोस्ट और काली कॉफी पीकर निकल जाती और आधी रात को लौटती। भगवती टोकती, तो हँसकर उसके उपालम्भ को वह उड़ाकर रख देती, "क्या करती, ममी, एक के बाद एक, दो सिजेरियन निबटाने पड़े, मिनी भी तो मेरे साथ भूखी-प्यासी असिस्ट कर रही थी। अब तुम्हीं बताओ, मरीज़ छोड़कर हम खाने कैसे आ जातीं?"
पता नहीं, क्या देखकर लड़की इतनी दूर इस रूखी नौकरी पर रीझकर चली आई थी। न ढंग का अस्पताल, न अपनी भाषा समझने वाली बिरादरी। जिधर देखो, उधर ही काले-काले लौहवर्णी संथाल चेहरे। कभी-कभी तो गोरा चेहरा देखने को भगवती तरस जाती थी। चंपा की असिस्टेंट मिनी का आनन्दी स्वभाव भगवती को मुग्ध कर गया था। देखने में एकदम साधारण थी वह, फिर शरीर के बेतुकी गढ़न ने उसे और भी साधारण बना दिया था। अपने मांसल जिस्म के भार से नाटे कद की वह डॉक्टरनी हर वक्त हाँफती रहती थी। ऊँचे जूड़े की गरिमा उस एलोकेशी के माथे पर शेषनाग के फन-सी ही घेरे रहती। आँखें बड़ी होने पर भी न जाने कैसी फटी-फटी लगती थीं। फड़कते अधर एक पल को भी स्थिर नहीं रहते। अपनी टूटी-फूटी हिन्दी से वह पहले ही दिन भगवती से अपनी शंकाओं का समाधान करा ले गई थी, "ओ माँ, लखनऊ से यहाँ क्यों आया, माँ जी ? आपका लेरकी तो एकदम बाज्ड्जा। हाम पहिले दिन देखा तो लगा, कहीं देखा है। फिर समझा, देखा है पिक्चर में। बझलेन, एकदम सुचित्रा सेन..."
ओर फिर बड़ी देर तक, वह कुर्सी पर हिल-हिलकर हँसती रही थी। कैसा विचित्र आकार था उसके शरीर का! "एकदम वेलन-सी लगती है री तेरी असिस्टेंट," भगवती ने चंपा से कहा, तो वह एक क्षण को हँसकर फिर गम्भीर हो गई थी।
"देखने में जैसी भी हो, ममी, बहुत काम की लड़की है। उस बेचारी को भी उसका दुर्भाग्य ही यहाँ खींच लाया है। पति फैक्टरी के ऊँचे पद पर थे। गत वर्ष नक्सलपंथियों ने उन्हें अकारण ही गोली से उड़ा दिया, इसी से हमारी तरह सब बेच-बाचकर यहाँ आ गई है।" एक लम्बी साँस खींचकर भगवती चुप रह गई थी। उसने क्या स्वयं हृदय पर पत्थर धरकर अपनी पूरी गृहस्थी मिट्टी के मोल नहीं लुटा दी थी? वैसे सामान्य-सी चेष्टा करने पर चंपा, लखनऊ के मेडिकल कॉलेज में ही छोटी-मोटी नौकरी जुटा सकती थी। उसका मृदु स्वभाव, दिव्य सौन्दर्य स्वयं ही उसकी योग्यता के प्रमाण-पत्र बन सकते थे, किन्तु जान-बूझकर ही वह अपनी प्रतिभा ताक पर धर रुग्णा जननी का हाथ पकड़ इस अनजान परिवेश में चली आई थी।
Details of Book :-
Particulars | Details (Size, Writer, Dialect, Pages) |
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Name of Book: | शमशान चंपा | Shamshan Champa |
Author: | Shivani |
Total pages: | 87 |
Language: | हिंदी | Hindi |
Size: | 1 ~ MB |
Download Status: | Available |

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