Free Hindi Book Noukar Ki Kamij In Pdf Download
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पुस्तक का संक्षिप्त विवरण:
यदि मैं किसी काम से बाहर जाऊँ, जैसे पान खाने, तो यह घर से खास बाहर निकलना नहीं था, क्योंकि मुझे वापस लौटकर आना था। और इस बात की पूरी कोशिश करके कि काम पूरा हो, यानी पान खाकर। घर बाहर जाने के लिए उतना नहीं होता जितना लौटने के लिए होता है। बाहर जाने के लिए दूसरों के घर होते हैं, दूसरे यानी परिचित, या जिनसे काम हो। जिनके यहाँ उठना-बैठना होगा, या बाजार-बगीचा, दफ्तर-कारखाना होगा। लौटने के लिए खुद का घर जरूरी होता है, चाहे किराये का एक कमरा हो या एक कमरे में कई किरायेदार हों।
मेरी पत्नी के लिए घर, बाहर निकलने के लिए बहुत कम था, इसलिए घर लौटने के लिए भी कम था। जब भी वह बाहर गई, जल्दी लौटकर आ गई। अकेले रहने से जाते समय घर में ताला बंद करना होता है, जो पत्नी, बाप-मों, भाई-बहिन या इनमें से किसी एक के रहने से नहीं करना पड़ता। नौकर को घर की चाबी का गुच्छा नहीं दिया जाता। अगर घर छोटा है तो एक चाबी भी नहीं दी जा सकती है।
घर में परिवार के रहने से बड़ा ही सुख था कि धड़धड़ाते हुए अंदर जाकर चारपाई में लेट गए। या जोर की पेशाब लगी हो और बाहर आड़वाली साफ जगह नहीं मिली, तो घर के अंदर आते ही सीधे पेशाब करने के बाद फुरसत होती है। नौकरी में होने से घर लौटने का समय शाम को दफ्तर बंद होने के बाद होता था। जब बेकार था तब कभी भी आना-जाना होता था। कोई निश्चित समय नहीं था। छुट्टी के दिन मुझे बार-बार घर से बाहर निकलना पड़ता था। बिना किसी वजह के।
सुबह से ही मैंने तय कर लिया था कि बाहर जाकर बहुत देर बाद लौटूंगा। जब मैंने खखारकर थूका तो कफ में खून के रेशे थे। सर्दी पक गई थी। पास में अम्मा खड़ी थी। नाटे कद की, दुबली-पतली, मुँह में एक भी दाँत नहीं, सफेद बाल बिखरे हुए, बिल्कुल माँ की तरह। बाहर जाते-जाते धीरे से मैंने अम्मा से कहा, "अम्मा, मेरे मुँह से खून निकला है।" यह कहते समय मेरी आवाज में बहुत कमजोरी थी। उदाहरण के लिए एक ऐसे बीमार आदमी की कमजोरी, जिसे बिस्तर से सहारा देकर उठाया जाता है। कई दिनों से उसे भूख नहीं लगी। चटपटी सब्जी खाने की उसकी बहुत इच्छा होती है। पर सब्जी कोई बनाता नहीं। जो भी वह खाता है, उल्टी हो जाती है। पानी पीता है। कराहता रहता है। डाक्टर को पूरी उम्मीद है कि वह बच जाएगा। इसलिए घर के लोग खुश हैं। और जितनी तकलीफ बीमार को है, उतना दुख उन लोगों को नहीं है, ऐसा बीमार सोचता है। जब वह अपनी तकलीफ की बात करता है तो उसकी पत्नी उसकी तकलीफ को यह कहकर कम कर देती है कि डाक्टर ने कहा है उसे कुछ नहीं होगा। जब वह कहता है कि अब वह मर जायेगा, तब उसकी माँ उसका माथा सहलाती हुई कहती है कि घबराओ नहीं, डाक्टर ने कहा है सब ठीक हो जाएगा। उसे प्यास लगती है, तो पत्नी कटोरी में दूध लेकर आती है। मजबूरी में थोड़ा दूध पी लेता है। तभी उसे कै करने की इच्छा होती है। उससे मिलने के लिए उसके दफ्तर के लोग आते हैं। कमजोरी में वह किसी से बात नहीं कर सकता। गले तक चादर ओहे वह पड़ा रहता है। उसके बदले उसकी माँ या पत्नी मिलनेवालों से बात करती हैं। लोगों के पूछने के पहले कि कैसी तबियत है, दोनों में से कोई कहेगा कि डाक्टर ने कहा कि सब ठीक हो जाएगा। गुस्से में वह पत्नी को गाली देना चाहता है। माँ से बात करना नहीं चाहता। पर कमजोरी के कारण वह शांत रहता है। मरता नहीं, थककर सो जाता है।
हकीकत में मैं बीमार नहीं था। और न मेरा मकान नर्सिंग होम था। पर जिस मकान में मैं रहने आया था उसका मालिक शहर का एक बड़ा डाक्टर था। मैं पचास रुपया महीना मकान का किराया देता था जो मकान को देखते हुए अधिक था। परंतु डाक्टर की सहूलियत मुफ्त मिलेगी, यह मेरे मन में नहीं था।
अम्मा ने थोड़ा झुककर देखा, "मुझे तो समझ में आता नहीं है। लगता है पान खाया था। बहू, तू देख ! खून है क्या?" पानी की बाल्टी ले जाते हुए पत्री वहीं बाल्टी छोड़, माँ के पास आई। मुस्कराते हुए माँ से कहा, "रात को दो पान लाए थे, सुबह पुड़िया में बँधा एक पान बचा था। कफ में सुपारी के टुकड़े हैं।"
"उसको सर्दी तो है। खखारकर जब-तब थूकता रहता है।"
अम्मा एक लोटे में पानी लेकर कफ को बहाने लगीं। तभी पत्त्री ने भरी वाल्टी लेकर उडेल दी।
पाँच मिनट में, बाहर से होकर मैं घर लौट आया था। इतनी थोड़ी देर में आना-जाना ही हुआ था। दृश्य बदलने के लिए पलक का झपक जाना ही बहुत होता है। पाँच मिनट के लिए बाहर जाना, मतलब पाँच मिनट तक घर के दृश्य पर पर्दा पड़ा रहना। मेरी गैरहाजिरी में पत्नी और माँ का कोई और ही दृश्य रहता होगा कि फुरसत मिली, या मेरी उपस्थिति में उनको काम करने में अड़चन हो रही थी।
जब मैं अंदर आया तब अम्मा कुछ चुपचाप लगीं। पत्नी के हाथ में एक खाली बाल्टी थी। अम्मा ने मुझे सबसे पहले लौटा हुआ देखा था। इस तरह देखा था कि मैं इतनी जल्दी कैसे आ गया, या मुझे कोई सामान लेने लौटना पड़ा है, या मेरी आदत ही है कि घर के अंदर और सड़क के बीच मैं केवल चहलकदमी करता हूँ। नौकरी के बाद पहली बार अम्मा मेरे पास रहने आई थीं।
दूसरी बार घर से बाहर निकलते ही ठाकुर की पान की दुकान के सामने मुझे संपत दिखा। संपत, मेरे बचपन का दोस्त। चेचक के गहरे दाग, साँवला रंग और गोल-गोल नाकवाले चेहरे की मुझे आदत पड़ गई थी। इस तरह की लत पड़ जाना ही क्या दोस्ती थी। बचपन में जब मैं अपनी बेडोल नाक की चर्चा सुनता था तो दुःखी हो जाता था।
Details of Book :-
Particulars | Details (Size, Writer, Dialect, Pages) |
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Name of Book: | नौकर की कमीज | Noukar Ki Kamij |
Author: | Vinod Kumar Shukla |
Total pages: | 194 |
Language: | हिंदी | Hindi |
Size: | 3 ~ MB |
Download Status: | Available |

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