रुद्रगाथा | RUDRA GATHA HINDI BOOK FREE PDF DOWNLOAD

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पुस्तक का संक्षिप्त विवरण:

वो एक ऐसा दृश्य था, जिसको देखने का सपना हर एक योद्धा का होता है। युद्धभूमि, हाथ में तलवार, और सामने विपक्षी सैनिक। उस युद्ध क्षेत्र में भीषण रण हो रहा था।

हजारों सैनिकों के क्षत-विक्षत किये हुए शव रणभूमि में पड़े थे। उनके प्राणहीन पड़े शरीर, उस युद्ध की बीभत्सता को दर्शा रहे थे। वहाँ की भूमि मृतकों के रक्त से रंग गयी थी। कई सैनिक घायल हुए पड़े थे, और दर्द से विचलित उनकी चीखें युद्धभूमि में गूंज रही थी। उन घायल सैनिकों के अतिरिक्त हाथियों और घोड़ों की चिंघाड़ एवं हिनहिनाहट ने उस युद्ध क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई हुई थी। कहीं तलवारें आपस में टकरा रही थीं, तो कहीं भाले के प्रहार का प्रतिरोध, ढाल के साथ किया जा रहा था। कहीं धनुष से निकला बाण, विपक्षी सैनिक के शरीर को चीर रहा था, तो कहीं बिना शस्त्र के, केवल बाहुबल से ही विरोधी को चुनौती दी जा रही थी। कहीं कोई सैनिक अपने विपक्षी सैनिक को युद्ध में उलझाये हुए था, तो कहीं कुछ सैनिक अपने घायल साथियों को युद्धभूमि से दूर सुरक्षित स्थान पर पहुंचा रहे थे। वे प्रयत्न कर रहे थे की किसी भी प्रकार से अपने साथी सैनिक के प्राण बचा लें। अनेक सैनिक तो हाथी के पैरों तले आकर ही अपने प्राण गंवा चुके थे।

इन दृश्यों को देखकर सैनिकों की भावनायें हिलोरें मार रही थीं। वे सभी सैनिक पूरी दृढ़ता से युद्ध कर रहे थे। उनका सीधा विचार था, कि उन्हें अपने दुश्मन पर कोई दया नहीं करनी है। सामने खड़ा हुआ विपक्षी सैनिक चाहे जितनी भी दया की भीख माँगे, उन्हें उसके प्राण नहीं बचाने हैं। ये युद्ध हो रहा था सम्राट कर्णध्वज और अधिपति रुद्र के मध्य। रुद्र की सेना भले ही संख्याबल में कम थी, किन्तु उसकी सेना का प्रत्येक सैनिक अपने पक्ष की विजय हेतु स्वयं को समर्पित करने की भावना रखता था। वे सैनिक लड़ रहे थे, अपने पक्ष की जीत के लिये, वे सैनिक लड़ रहे थे, अपने धर्म की रक्षा के लिये। वे सैनिक लड़ रहे थे, क्योंकि यही उनका कर्म था, वो योद्धा थे; वो सब के सब बीर योद्धा थे।

युद्ध में क्षत्रिय समाज के पथ प्रदर्शक एवं वीरभूमि के महाराज, सम्राट कर्णध्वज की सेना विजय की ओर अग्रसर दिख रही थी। अभी तक के युद्ध में सम्राट कर्णध्वज की सेना अपने विपक्षियों पर भारी पड़ रही थी; और होती भी क्यों न? भारत देश के सबसे बड़े प्रांत वीरभूमि के महाराज, क्षत्रिय समाज के प्रमुख सम्राट, कर्णध्वज की सेना थी वो, जिसमें कुल 8 लाख सैनिक थे, 6 लाख पैदल सैनिक, 1 लाख घुड़सवार, दस हजार हाथी और नब्बे हजार धनुष-बाण धारी सैनिक। यही नहीं, उस विशाल सेना का नेतृत्त्व करने के लिये उनके पास था, महाबली कनिष्क जैसा वीर सेनापति, जिसकी वीरता से सम्पूर्ण भारतवर्ष परिचित था।

कुछ वर्ष पूर्व तक सम्राट कर्णध्वज, क्षत्रिय समाज के अग्रणी हुआ करते थे, और उनके प्रति सम्पूर्ण भारतवर्ष के क्षत्रिय राजाओं की निष्ठा हुआ करती थी, किन्तु अब परिस्थितियों बहुत परिवर्तित हो चुकी थीं। भारतवर्ष की सभी क्षत्रिय सेना का सहयोग उनके पास नहीं था। अब उनके पास केवल उन्हीं की सेना का बल था। पर वो 8 लाख सैनिकों की संयुक्त संख्या किसी भी विरोधी के लिये पर्याप्त थी। उस विशाल सेना को देखकर किसी भी दुश्मन की सेना का मनोबल टूट जाता। भारत देश के उन वीर क्षत्रियों की संयुक्त सेना से युद्ध करने का निर्णय अवश्य कोई मंद बुद्धि राजा ही ले सकता था। 8 लाख सैनिकों के संयुक्त दस्ते को देखकर एकबारगी देवता भी युद्ध करने से कतरायें।

सम्राट कर्णध्वज, सेना के मध्य में बनाये गये ऊँचे अवलोकन स्थल से पूरे युद्ध पर तजरें गड़ाये हुए थे। उन्हें अपनी 'निश्चित' ही होने वाली विजय का आभास हो चुका था। उनके मुख की प्रसन्नता, उनके हृदय की प्रफुल्लित भावनाओं को प्रदर्शित कर रही थीं। सम्राट आखिर प्रसन्न होते भी क्यों न? अंततः वो उस कपटी ब्राह्मण को धूल चटाने वाले थे। वो कपटी, जिसने उनके अखंड साम्राज्य को चुनौती दी थी। सम्राट कर्णध्वज के ठीक

बगल में बीरभूमि के प्रधानमंत्री अभ्यस्त भी विराजमान थे। "अभ्यस्तः ऐसा लगता है कि अब विजय हमसे अधिक दूर नहीं है।" सम्राट कर्णध्वज ने प्रसन्नता के साथ अपने प्रधानमंत्री से प्रश्न किया।

"निश्चित ही महाराज! आपके कुशल नेतृत्त्व एवं सेनापति कनिष्क की सटीक रणनीति ने युद्ध को हमारे पक्ष में कर दिया है।" प्रधानमंत्री अभ्यस्त ने अपने सम्राट को यथोचित सम्मान से उत्तर दिया।

"क्या अब हमें उस खूंखार हत्यारे को युद्धभूमि में भेज देना चाहिये? तुम्हारा इस विषय में क्या विचार है अभ्यस्त?" महाराज कर्णध्वज ने अभ्यस्त से एक बार फिर प्रश्न किया। सम्राट कर्णध्वज कोई भी निर्णय लेने से पूर्व अपने प्रधानमंत्री से सलाह लेते थे, और वो अभ्यस्त की सलाह का सम्मान भी करते थे... लेकिन तभी तक, जब तक कि वो सलाह उन्हें ठीक लगे।

"महाराज! मेरा सुझाव है कि अब हमें उस हत्यारे का प्रयोग करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी; हमारे सेनापति कनिष्क ही शत्रुओं का सम्पूर्ण नाश करने के लिये पर्याप्त हैं।" अभ्यस्त ने उत्तर दिया।

सम्राट कर्णध्वज कुछ क्षण के लिये मौन हो गये। उन्होंने रुद्र के विषय में एक बार फिर विचार किया। अचानक उनकी आँखों के आगे, उस ब्राह्मण द्वारा किये गये सारे कृत्य नाचने लगे। वो ब्राह्मण, जो उनकी दृष्टि में इस संसार का सबसे नीच और अधर्मी मनुष्य था, उसके विषय में सोचते ही क्रोध से उनकी मुट्ठियों भिंच गयीं। सम्राट कर्णध्वज का मुख क्रोध से लाल हो गया।

"उस नीच और मंदबुद्धि ब्राह्मण को उसके किये गये तुच्छ कर्मों की सजा देकर ही मेरा हृदय शान्त होगा अभ्यस्तः मैं उस नीच घमंडी को भयानक मृत्यु देना चाहता हूँ, इसलिये तुम इसी क्षण उस हत्यारे को युद्धभूमि में भेजने का प्रबंध करो।" सम्राट कर्णध्वज ने अपने दाँतों को भींचते हुए कहा। वो उस पल की कामना करने लगे, जब वो हत्यारा उस धूर्त ब्राह्मण के शरीर को प्राण रहित कर देगा। रुद्र के प्राण विहीन शरीर को देखने की कल्पना मात्र करने से ही सम्राट कर्णध्वज को अत्यधिक सुख की अनुभूति हुई।

Details of Book :-

Particulars

Details (Size, Writer, Dialect, Pages)

Name of Book:रुद्रगाथा | Rudra Gatha
Author:Sahitya sagar Pandey
Total pages:140
Language: हिंदी | Hindi
Size:1.6 ~ MB
Download Status:Available


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