Free Hindi Book Ishq Mein Shayar Hona In Pdf Download
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पुस्तक का संक्षिप्त विवरण:
हमने शहर को हमेशा गाँव की नज़र से देखा है। जहाँ जाकर लोग गाँव को भूल जाते हैं। शहर मेरी ज़िन्दगी में गाँव बनाम शहर के रूप में आया। तब तक शहर हमारे लिए एक अस्थायी पता-भर था। हम 'स्थायी पता' के कॉलम में गाँव का पता भरते थे। शहर के डेरे का नहीं। हर मौक़े पर बिहार की राजधानी पटना से मोतिहारी ज़िले के गाँव जितवारपुर लौटना होता था। हर वक़्त घर और डेरा का फ़र्क बना रहता था। घर मतलब गाँव, डेरा मतलब शहर।
जब भी गाँव लौटकर आना होता था, उलाहनों की पूरी सीरीज़ तैयार होती थी। बड़े-बुजुर्ग कहते थे कि गाँव ही अपना है। यही तुम्हारा वजूद है। गाँव को ही जानो-पहचानो। शहर तो तुम्हें बिगाड़ रहा है। गाँव ही बनाएगा। गाँव ही बचाएगा। हम भी खुद को बचाकर रखते थे कि कोई पूरी तरह शहरी न समझ ले। पूरी कोशिश करते थे कि शहर न हो जाएँ। शहर होने का मतलब गाँव से विश्वासघात। उस ज़मीन से धोखा जिसे मेरे पुरखों ने सींचा था। अपना खेत और पेड़ न पहचानने पर बाबूजी से डॉट पड़ जाती थी। ऐसा लगता था कि मेरे आस-पास की दुनिया मुझे शहर से बचाकर रखना चाहती थी लेकिन मैं गाँव को बचाए रखते हुए शहर को खोजना चाहता था।
गाँव से शहर लौटने पर घर से बाहर निकलने की तमाम नई बन्दिशें लागू हो जाती थीं। सूरज डूबने से पहले घर आ जाना है। बहुत दूर के किसी मोहल्ले में यारी दोस्ती के लिए नहीं जाना है। सिनेमा जाने की छूट इस शर्त के साथ मिलती थी कि शाम से पहले आ जाना है। देर रात की फ़िल्में नहीं देखनी हैं। बुरे चरित्रवाले ही इतनी रात तक सिनेमा देखते हैं। कोई साइकिल छीन लेगा तो कोई भगा ले जाएगा। दोपहर में दरवाज़े-खिड़कियाँ सब बन्द हो जाती थीं। 'हम्बूराबी' के नियम जैसा बन गया था कि बाबूजी के लौटने से पहले सबको लौट आना है। गाँव में ऐसा कोई नियम नहीं था। इसलिए हमने बचपन में गाँव को खूब खोजा है। वहाँ गैर का भी अपना होता था और शहर में सिर्फ़ अपना ही अपना होता है।
शायद ये मेरी माँ की असुरक्षा की भावना ही रही होगी कि एक अनजान शहर में कोई उसके बच्चों को उठा न ले जाए। इसलिए वह बच्चा उठानेवाले धरकोसवा की कहानी सुनाती थी जो मुँह बन्द कर बच्चे को बोरे में कस देता था। माँ की यह असुरक्षा सही भी थी। उसके जीवन में भी कोई शहर पहली बार आया था। बहुत छोटा था जब दोस्तों के साथ खेलते-खेलते भटक गया। काफ़ी खोजबीन हुई। दोपहर तक जब घर नहीं लौटा तो माँ मन्दिर-मन्दिर भटकने लगी।
बाद में एक जैन मन्दिर में मिल गया। मुझे घर का पता नहीं मालूम था, इसलिए मन्दिरवाले ने अपने यहाँ रख लिया था। माँ आज तक जैन मन्दिर का शुक्रिया अदा करती है। कहती है कि आजकल के साधु होते तो तुम्हें गायब ही कर देते। गाँव में घर नहीं खोता है लेकिन शहर में खो सकता है। हम रोज़ अलग-अलग शहरों में कई बार लौटते हुए घर का रास्ता भटक जाते हैं। घर खो जाता है।
धीरे-धीरे मैं धरकोसवा कहानी की प्रेत-छाया से आज़ाद होने लगा। किसी दोपहर अनजान गली या मोहल्ले की तरफ़ चला जाता। सिर्फ़ देखने और पहचानने कि ये मेरे शहर का हिस्सा है। क्यों ये मोहल्ला मेरे मोहल्ले से अलग है? भटकने की इस आदत ने मुझे शहर का होना बनाना शुरू किया।
पटना एक रहस्य बना रहा मगर उसके कई राज़ मैंने जान लिये। गांधी संग्रहालय के पीछे पीपल के पेड़ के नीचे बैठ गंगा को खूब निहारा करता। दूर नाव से आती आवाज़ को सुनकर ज़िन्दगी के प्रति रोमांच जाग जाता। गणित में फेल होने की यातना से मुक्ति का अभ्यास मुझे कई बार गंगा के इस एकान्त में ले गया। यही वह लम्हे थे जिनमें मैं बिना किसी को बताए शहर को जीने लगा। जैसे ही घर लौटता सारा माहौल ऐसा हो जाता कि घर में किसी शहर को आने नहीं देना है। हम शहर में गाँव के लिए रहते थे।
शहर में शहर के लिए होना सिखाया दिल्ली ने। लेकिन 'इलेवन अप' ट्रेन से उतरते ही दिल्ली का विस्तार देख सिहर गया। पहली ही नज़र में दिल्ली से डर गया। फ़िल्मों में देखा था कि कैसे गाँव से आकर दिलीप कुमार मुम्बई की सड़क के बीचोबीच घिर जाते हैं। कई बार दिल्ली के एम्स के चौराहे पर पहुँचकर ऐसा ही लगता। डीटीसी बस नम्बर एक नया पता बन गया। हमने उन नम्बरों को पहचान लिया जो मुझे गोविन्दपुरी की तरफ़ ले जाते थे।
धीरे-धीरे समझने लगा कि इतना बड़ा शहर यानी पटना से भी ज़्यादा ख़ज़ाना! मैं दिल्ली आकर वही करने लगा जो पटना में किया करता था। दोपहर में चलने लगा। मैंने दोपहर के वक़्त इस शहर की कई गलियों और मोहल्लों की यात्रा की है। पर सिर्फ़ देखना होता था। घरों की बालकनी में वाशिंग मशीन और नाइटी या मैक्सी गाउन में औरतों को कपड़े साफ़ करने का दृश्य ही मेरे जेहन में दिल्ली बनकर उतरा। ग़ालिब और इंडिया गेट बाद में आए। बल्कि आज तक ठीक से नहीं आए। इतनी बड़ी संख्या में दोपहर के वक़्त नाइटी पहनकर औरतों को घूमते नहीं देखा था। पटना में नाइटी का आगमन तो हुआ था मगर प्रचलन नहीं था। पेंटर होता तो नाइटी पर दिल्ली को पेंट करता।
नयना से दोस्ती ने इस शहर को एक किताब में बदल दिया। बल्कि में इस शहर के लिए बदल गया। हम प्रेम में खूब भटके हैं। विदा होने से पहले कुछ और बात कर लेने की बेचैनी ने खूब पैदल चलाया। दिल्ली भी साथ-साथ चलती थी। दिल्ली का अजनबीपन रोमांस का सबसे अच्छा दोस्त है। गाँव की तरह यहाँ मुझे न कोई जानता था, न पहचानता था। प्रेम के इन्हीं पलों में मैंने इमारतों की ऐतिहासिकता को जाना है। मुग़ल आर्किटेक्चर पर नयना के लम्बे-लम्बे लेक्चर सुने हैं। जी, प्रेम में पढ़ना भी पड़ता है। बहस होती है। हम सिर्फ़ ख़ुद को ही नहीं, शहर को भी परिभाषित कर रहे होते हैं। आज भी 'लैपिस लजुली' (लाजवर्द) रत्न का नाम सुनते ही कबूतर की तरह गया वक़्त फड़फड़ाने लगता है।
लेकिन मेरी ज़िन्दगी में एक और शख़्स इन्तज़ार कर रहा था जिसके पास दुनिया भर के शहर थे। दिवंगत इतिहासकार पार्थसारथी गुप्ता। एम.ए. के दिनों में सुने हुए शहरीकरण पर उनके लेक्चर मेरे लिए आज भी गाइड का काम करते हैं। हम सब उन्हें पीएसजी बुलाते थे। उनकी क्लास में कुछ तो ऐसा हुआ जिससे मेरे लिए दिल्ली लोगों की दिल्ली बन गई।
Details of Book :-
Particulars | Details (Size, Writer, Dialect, Pages) |
|---|---|
| Name of Book: | इश्क़ में शायर होना | Ishq Mein Shayar Hona |
| Author: | Ravish Kumar |
| Total pages: | 100 |
| Language: | हिंदी | Hindi |
| Size: | 3.4 ~ MB |
| Download Status: | Available |
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