Free Hindi Book Sekhar Ek Jivani Second Vol In Pdf Download
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पुस्तक का संक्षिप्त विवरण:
गाड़ी भड़भड़ाती हुई दौड़ रही थी। नीलगिरि प्रदेश में शेखर अपने माता-पिता और भाइयों को पाँच सौ मील पीछे छोड़ आया था, और अब मद्रास भी पीछे छूटा जा रहा था। नीलगिरि, मद्रास, महाबलिपुर, मालाबार, त्रावनकोर सब पीछे छूट जाएँगे ! वह आगे जा रहा है, गाड़ी उसे खींचती हुई बेतहाशा उत्तर की ओर दौड़ी चली जा रही है, एक हज़ार मील जाकर ही दम लेगी-फिर वहाँ से दूसरी गाड़ी चलेगी, जो एक हज़ार मील और परे घसीट ले जाएगी... सब इन अपने परिचय के स्थानों से दो हज़ार मील दूर!
लेकिन, ये सब उसके परिचित स्थान क्या हैं? उसे उनसे क्या है? नीलगिरि उसके लिए क्या है, सिवाय इसके कि वहाँ उसके भाई-बन्द रहते हैं। महाबलिपुर क्या है, सिवाय इसके कि वहाँ वह डूबा था। त्रावनकोर भी क्या है, सिवाय इसके कि वहाँ शारदा थी और वह उससे लड़ आया? जब वह नहीं रहेगा, तब ये सब स्थान भी नहीं रहेंगे... ये सब इसीलिए हैं कि इनमें वह है, और अब वह इन सबसे भागा जा रहा है, अपने आपकी उन पर पड़ी हुई छाप से भागा जा रहा है, अपने आपसे भागा जा रहा है...
क्या यह सब सत्य है? क्या वे स्थान सत्य हैं? क्या वे सब लड़ाई-झगड़े, प्यार, तिरस्कार, सत्य हैं? क्या वह खुद सत्य है? गाड़ी उसे खींचती हुई दौड़ी चली जा रही है, उसे लगता है कि कुछ भी सत्य नहीं है, शायद गाड़ी का दौड़ना भी सत्य नहीं है...
लेकिन वह सत्य के सिवा कुछ हो नहीं सकता। शेखर अपनी पराजय से भाग रहा है, अपने दर्द से भाग रहा है। वह बेवकूफ़ है। वह जीवन से भागने की मूर्खता-भरी कोशिश कर रहा है। जीवन से भाग कर वह जाएगा कहाँ? जो युद्धमुख से भागता है, अपनी पराजय से भागता है, उसके लिए क़दम-क़दम पर और युद्ध हैं, और पराजय है, तब तक कि वह जान न ले कि अब और भागना नहीं है, टिककर लड़ने न लगे... जीवन से भागना? आगे और जीवन है; जीवन तो रुक नहीं सकता, उसका तो विस्तार समाप्त नहीं हो सकता...
होने दो। मद्रास एक हज़ार मील पीछे रह जाएगा, पंजाब एक हज़ार मील आगे है। और वहाँ नया जीवन है और विद्यावती है, और शशि है, और... गाड़ी का शोर समुद्र के गर्जन की तरह है। समुद्र... लेकिन यह गर्जन उसे समुद्र से परे खींच लिये जा रहा है, परे...
कद के लम्बे-तगड़े, रंग के गोरे, देखने में सुन्दर और सुनने में समर्थ जँचने वाले पंजाबी लोग-शेखर ने उनकी आँखों से आँखें मिलाकर देखा, वे हटती नहीं हैं, न डर से और न अर्थहीन विनय से।
और उसने सोचा, ये आदमी मर्द हैं। इनके साथ काम हो सकेगा, ये लड़ाई में कन्धे से कन्धा भिड़ा सकेंगे।
वह लड़ाई से भागकर आया था, थका हुआ था। इसीलिए वह इस समय अपने में रण-तत्परता नहीं पाता था, तनाव नहीं पाता था। उसने मानो अपना कवच ढीला कर दिया था और सुस्ताका रहा था। सोया वह नहीं था, आँखें खुली थीं, लेकिन खड्गहस्त भी वह नहीं था, वह सिर्फ़ देख रहा था, उसकी आँखों में सिर्फ़ पहचानने की चेष्टा का खुला भाव थाः न दोस्ती का खिंचाव, न दुश्मनी का संकोच।
और उसने इस नए प्रदेश के लोगों को दो वर्ष बाद फिर देखकर सोचा, ये आदमी मर्द हैं, इनके साथ काम हो सकेगा।
दो वर्ष पहले जब वह मैट्रिक की परीक्षा देने आया था, तब उसने इन लोगों को ठीक से देखा भी नहीं था। अपने मस्तिष्क को शारदा से भरे हुए वह आया था, और शशि की ही एक नई छाप वह उस पर ले गया था, और विशेष कुछ उसने देखा नहीं था; लेकिन अब एक लड़ाई से आकर वह उन्हें योद्धा के ही माप से मापने लगा- यद्यपि थके हुए सुस्ता रहे योद्धा के।
शेखर में पक्षपात नहीं था कुछ था तो पंजाब और उसके निवासियों के हक में ही-और वह आते ही कोशिश करने लगा कि उनके साथ एकात्म, एकप्राण हो सके। होस्टल के लड़कों से मिलकर उनके विचार जानने की, उनके आदर्श और उनकी कामनाएँ समझने की, उसने चेष्टा की। जब उसने देखा कि इसमें वह स्वयं विघ्नरूप है, क्योंकि वह उनकी भाषा नहीं बोलता है, उनके कपड़े नहीं पहनता है, स्पष्ट दिखा देता है कि वह उनमें से नहीं है, तब उसने इनका भी इलाज करना आरम्भ किया। उसने दो-तीन सूट सिलवाए; कॉलर, टाइयाँ, मोजे, शू, कंघी-बुश, खुशबूदार तेल, पैंट दाबने का प्रेस और कोट टाँगने का फ्रेम, एक खाकी सोला हैट भी ये सब चीजें वह निरीह भाव से ले आया। चीजें उसने सब साधारण लीं, बहुत अधिक पैसा खर्च नहीं किया, पर उसकी पसन्द में कुछ ऐसी विशेष सादगी थी कि चीज़ें दाम की सस्ती होकर भी सूरत की सस्ती नहीं जान पड़ती थीं। भड़कीली चीज़ इतना अधिक सामने आती है कि उसमें दृश्य महँगेपन का होना लाज़िमी हो जाता है; जो चीजें सामने नहीं आर्ती, वह गुज़ारे लायक सस्ती होकर भी चल जाती हैं। सूट पहनकर जब वह अपने सहपाठियों में आ मिला, तब उसने देखा कि जहाँ तक 'ट्रेडमार्क' का सवाल है, वह उनकी पाँत में खड़ा होने का अधिकारी हो गया है। भाषा का प्रश्न अभी था, वह उनकी भाषा ठीक तरह बोल नहीं सकता था, मुहावरा तो बिलकुल ही नहीं जानता था। फिर भी, रंग-ढंग में उन-सा होकर और उनकी बात समझ लेने के काबिल होकर वह ऐसा गैर नहीं दीखता था। और धीरे-धीरे उसको उनके समाज में प्रवेश मिलने लगा।
इस प्रकार वेश के सहारे जिस आसानी से उसे चारों ओर रास्ता मिलने लगा, उस पर उसे सन्देह होना चाहिए था, लेकिन वह सन्देह के लिए उपयुक्त मनःस्थिति में ही नहीं था। स्वीकृति पाना, स्वागत पाना, मान्य होना, कितना अच्छा था... शेखर चेहरे-मोहरे से विशेष........
Details of Book :-
Particulars | Details (Size, Writer, Dialect, Pages) |
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Name of Book: | शेखर एक जीवनी दूसरा भाग | Sekhar Ek Jivani Second Vol |
Author: | Ajneya |
Total pages: | 248 |
Language: | हिंदी | Hindi |
Size: | 3.5 ~ MB |
Download Status: | Available |

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