शेखर एक जीवनी पहला भाग | SEKHAR EK JIVANI FIRST VOL HINDI BOOK PDF DOWNLOAD

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पुस्तक का संक्षिप्त विवरण:

वेदना में एक शक्ति है जो दृष्टि देती है। जो यातना में है, वह द्रष्टा हो सकता है।

'शेखरः एक जीवनी', जो मेरे दस वर्ष के परिश्रम का फल है- दस वर्षों में अभी कुछ देर है, लेकिन 'जीवनी' भी तो अभी पूरी नहीं हुई। घनीभूत वेदना की केवल एक रात में देखे हुए vision को शब्द-बद्ध करने का प्रयत्न है।

आप इसे शेखी समझ सकते हैं। मेरे कहने का यह अभिप्राय नहीं है कि इतना बड़ा पोथा मैंने एक रात में गढ़ डाला। नहीं, आप मेरे एक शब्द को फिर ध्यान से पढ़िए - 'शेखर' घनीभूत वेदना की केवल एक रात में देखे हुए vision को शब्द-बद्ध करने का प्रयत्न है।

सम्भव है, आप जानना चाहें वह रात कैसी थी। किन्तु निजी बातों का वर्णन शक्य नहीं होता, न उसका आपके लिए कोई प्रयोजन ही है। आपके लिए तो उसका यही वर्णन और यही महत्त्व हो सकता है कि उसमें मैंने यह vision देखा था। वह रात मुझे उपलब्ध कैसे हुई, इसके सम्बन्ध में इतना बता सकता हूँ कि जब आधी रात को डाकुओं की तरह आकर पुलिस मुझे बन्दी बना ले गई और उसके तत्काल बाद पुलिस के उच्च अधिकारियों से मेरी बातचीत, फिर कहासुनी और फिर थोड़ी-सी मारपीट भी हो गई, तब मुझे ऐसा दीखने लगा कि मेरे जीवन की इति शीघ्र होने वाली है। फाँसी का पात्र मैं अपने को नहीं समझता था, न अब समझता हूँ, लेकिन उस समय की परिस्थिति और अपनी मनःस्थिति के कारण यह मुझे असम्भव नहीं लगा। बल्कि मुझे दृढ़ विश्वास हो गया कि यही भवितव्य मेरे सामने है। ऊपर मैंने कहा कि घोर यातना व्यक्ति को द्रष्टा बना देती है, यहाँ यह भी कहूँ कि घोर निराशा उसे अनासक्त बनाकर द्रष्टा होने के लिए तैयार करती है। मेरी स्थिति मानो भावानुभावों के घेरे से बाहर निकलकर एक समस्या-रूप में मेरे सामने आई अगर यही मेरे जीवन का अन्त है, तो उस जीवन का मोल क्या है, अर्थ क्या है, सिद्धि क्या है व्यक्ति के लिए, समाज के लिए, मानव के लिए?... इस जिज्ञासा की अनासक्त निर्ममता के, और यातना की सर्वभेदी दृष्टि के आगे मेरा जीवन धीरे-धीरे खुलने लगा, एक निजू और अप्रासंगिक विसंगति के रूप में नहीं, एक घटना के रूप में, एक सामाजिक तथ्य के रूप में, और धीरे-धीरे कार्य-कारण परम्परा के सूत्र सुलझ-सुलझकर हाथ में आने लगे...

पौ फटने तक सारा चित्र बदल गया। अर्थ के बहुत से सूत्र मेरे हाथ में थे, लेकिन देह जैसे झर गई थी, धूल हो गई थी। थककर, किन्तु शान्ति पाकर मैं सो गया और दो-तीन दिन तक सोया रहा।

यही उस रात के बारे में कह सकता हूँ। उसके बाद महीना भर तक कुछ नहीं हुआ। एक मास बाद जब मैं लाहौर किले से अमृतसर जेल ले जाया गया, तब लेखन-सामग्री पाकर मैंने चार-पाँच दिन में उस रात में समझे हुए जीवन के अर्थ और उसकी तर्कसंगति को लिख डाला। पेंसिल से लिखे हुए वे तीन-एक सौ पन्ने 'शेखरः एक जीवनी' की नींव हैं। उसके बाद नौ वर्ष से अधिक मैंने उस प्राण- दीप्ति को एक शरीर दे देने में लगाए हैं। उसी को शरीर देने के लिए, इसलिए कि वैसी 'तीव्रता' (intensity) केवल कल्पना के सहारे नहीं मिल सकती, वह जीवन में ही मिल जाए, तो कल्पना से उसे संयत ही किया जा सकता है, पूर्वापर का जामा ही पहनाया जा सकता है।

यदि आपने क्रान्तिकारियों के जीवन का कुछ भी अध्ययन किया होगा, तो आप पाएँगे कि अथक कार्यशील इन प्राणियों में उनके सारे कृतित्व के नीचे छिपी हुई एक कठोर नियति रहती है। क्रान्तिकारी अन्ततोगत्वा एक प्रकार के नियतिवादी होते हैं। लेकिन यह नियतिवाद उन्हें अक्षम और निकम्मा बनाने वाला कोरा भाग्यवाद नहीं होता, वह उन्हें अधिक निर्मम होकर कार्य करने की प्रेरणा देता है। इसमें वह गीता के कर्मयोग से एक सीढ़ी आगे होता है- क्योंकि यह कर्ता को निरा निमित्त नहीं बना देता। यदि यों कहा जाए, कि क्रान्तिकारी का नियतिवाद अटल निर्यात की स्वीकृति न होकर, जीवन की विज्ञान-संगत कार्य-कारण परम्परा पर गहरा (यद्यपि अस्पष्ट) विश्वास होता है तो शायद सच्चाई के निकट होगा। मेरा खयाल है कि आज के अधिकांश वैज्ञानिक भी कुछ इसी प्रकार के नियतिवादी हैं।

तो 'शेखरः एक जीवनी' के क्रान्तिकारी नायक ने अपने जीवन में इसी नियति के सूत्र को पहचानने का प्रयत्न किया है। क्योंकि उसे पहचान लेना ही जीवन को समझ लेना है, उसकी पूर्ति पा लेना है। ईश्वर जो करता है, अच्छा ही करता है, अतएव प्रत्येक घटना स्वयं अपनी सिद्धि है यह भी एक मार्ग है, लेकिन इस तर्क-परम्परा को जो व्यक्ति स्वीकार नहीं कर सकता है उसके लिए जीवन को सह्य बनाने का दूसरा उपाय यही हो सकता है। इसीलिए आप पाएँगे कि 'जीवनी' के पहले भाग में शेखर अपने बाल्यकाल की छोटी-छोटी घटनाओं की भी जाँच कर रहा है। बाल्यकाल का अध्ययन स्वयं अपना महत्त्व रखता है, और विदेशों के कई कलाकारों ने बाल्यमन का अध्ययन और चित्रण किया है, लेकिन 'जीवनी' में यह अध्ययन साध्य नहीं है, वह केवल उन सूत्रों को खोजने का साधन है, जो होते हैं प्रत्येक जीवन में, किन्तु जिन्हें देखने की शक्ति सदा नहीं होती-वह तो तब मिलती है जब किसी घटना की चोट से जीवन दीप्त हो उठता है या तब जब यातना की तीव्रता से व्यक्ति ही सूक्ष्म द्रष्टा बन जाता है... अपनी रचना के बारे में कुछ कहने का अधिकार मुझे नहीं है, लेकिन 'शेखर' का और अपना सम्बन्ध ध्यान में रखते हुए मुझे लगता है कि इसी में उसके जीवन की महानता और इसी में उसकी दीनता है। महानता इसलिए कि उसकी जिज्ञासा में लगन है, निष्ठा है, दीनता इसलिए कि इस तीव्रता के कारण ही वह कई जगह सच्चा शोधक न रहकर केवल हेतुवादी रह जाता है और उसका हेतुबाद (rationalisation) करुण और दयनीय जान पड़ने लगता है.... तो संक्षेप में यही 'शेखरः एक जीवनी' की बुनियाद की कहानी है। आप कहेंगे कि यह तो एक vision नहीं, यह एक तर्क-प्रणाली है, एक फलसफा है। लेकिन मैं मानता हूँ कि फलसफा भी अन्ततः दृष्टि है vision है और अपनी धारण की पुष्टि के लिए फलसफे......

Details of Book :-

Particulars

Details (Size, Writer, Dialect, Pages)

Name of Book:शेखर एक जीवनी पहला भाग | Sekhar Ek Jivani First Vol
Author:Ajneya
Total pages:194
Language: हिंदी | Hindi
Size:1.9 ~ MB
Download Status:Available


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