दिव्य मानव बनने की कुंजी | DIVYA MANAB BANNE KI KUNJI HINDI BOOK PDF DOWNLOAD

Divya Manab Banne Ki Kunji In Pdf Download

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पुस्तक का संक्षिप्त विवरण:

वह क्या थी? कौन थी? कैसी थी?

सहस्रों वर्ष पूर्व की बात है, जब एक 'माँ' थी। हमारे पूर्वज बताते हैं कि उस माँ के आँचल में दूध की नदियाँ बहती थीं। उसके पुत्र होते थे तो ऐसे कि जिनके विचारों से, जिनकी वाणी से, जिनके विज्ञान से समस्त संसार ने विचार, वाणी और विज्ञान पाया। जिनका तेज, पराक्रम और पुरुषार्थ ऐसा होता था कि आज के मानव को विश्वास ही नहीं हो सकता कि किसी काल में मानव उस दिव्यता को भी प्राप्त हुआ होगा।

फिर क्रूर काल की गति ऐसी चली कि उसके पुत्र पुरुषार्थहीन हो चले। वे दूध की नदियाँ सूखने लगीं और सूख गई। निर्दयी पुत्र फिर भी अपनी भूख मिटाने के लिए दूध की जगह उस माँ का रक्त पीने लगे। आज यह अवस्था आ गई है कि उस माँ की देह में रक्त भी नहीं बचा। पर लंबे-लंबे माँगनेवाले हाथ फिर भी उस धैर्यमयी से माँगते ही जा रहे हैं। अपने स्वार्थ के लिए उसका मांस तक नोच-नोच कर खाने लगे हैं। अब ले-देकर परम गौरवमयी, परम पुनीत, कोटि-कोटि पुत्रों के होते हुए भी पुत्र-विहीन-सी, उस माँ का केवल हाड़ बचा है। सो शायद उसको भी चबाकर ही दम लेंगे, ऐसा जान पड़ता है....

...." हमारी माँगें पूरी हों"... "हमारी माँगें पूरी हों" इस नारे से समस्त दिशाएँ गूँज उठी हैं। आज जिधर देखें, उधर बस माँगें ही माँगें हैं। विद्यार्थी हों या अध्यापक, मजदूर हों या किसान, कर्मचरी हों या अधिकारी, डॉक्टर हों या इंजीनियर, सय माँग ही रहे हैं। मानो यह सारा-का-सारा राष्ट्र ही भिखारी हो चला।

जब सारा राष्ट्र ही भीख माँगेगा, तो देनेवाला कौन है?

कितना घातक भ्रम है लोगों में, जो समझते हैं कि देने का काम शासन का है, सरकार का है। सब सोचते हैं कि सरकार ने हमारे लिए यह नहीं किया, वह नहीं किया। यह नहीं दिया, वह नहीं दिया। कितनी भयंकर भूल है! संभवतः इस देश के नेतृत्व ने राजनीतिक स्वार्थ में पड़कर देशवासियों से लुभावने वादे कर-करके लोगों की मानसिकता ही विकृत कर दी। वे अपने स्वाभिमान को भूलकर केवल माँगनेवाले बन बैठे।

इन अपमानित, भूले-भटके पुत्रों की दुर्दशा देखकर ही वह परम वात्सल्यमयी 'भारत माँ' पुकार उठी :

"ऐ मेरे नादान बच्चो, शासन तो केवल मेरा मुनीम है, वह क्या दे सकेगा किसी को। देनेवाली तो मैं और केवल

मैं ही हूँ और मैं भी देती, तो कब तक?..."

"है कोई इन कोटि-कोटि पुत्रों में, जो इस अभागी माँ को कुछ दे सके? है कोई, जो इस अबला की लाज को ढक सके? अपने संभ्रमित स्वार्थी भाइयों से पूछ सके कि ऐ मेरे भाइयो! जब सब ही माँगेंगे तो ये माँ देगी कहाँ से?... तुम इतने निर्मम तो न थे... यह क्या हो गया तुम्हें?"...

"...क्या माँ को भी कोई भुलाता है?... कहाँ गई वह मातृ-भक्ति? कहाँ गया वह स्वाभिमान?... एक बार तो देखले कि क्या गत है उसकी..."

चीत्कार कर उठी है माँ और पूछ रही है कि :

"है कोई वीर जो इस माँ को इस योग्य बना सके कि वह पुनः अपनी उस गरिमा, उस गौरव, उस शक्ति को पा सके जिसके तेज से सारा संसार उसे नमन करता था?... जिसके आँचल में दूध की नदियाँ बहती थीं... जिसे संसार सोने की चिड़िया के नाम से पुकारता था?... राम, कृष्ण, बुद्ध, कबीर, नानक, शिवाजी, लक्ष्मीबाई, तिलक, गांधी, सुभाष के देश में इस माँ को कुछ दे सके? ऐसा सपूत पाना क्या इतना दुर्लभ हो गया?"

मानो एकबारगी इस देश के कोटिशः युवा पुत्रों की हुँकार एक साथ निकलकर कह रही हो :

"बस! मेरी माँ! अति प्यारी माँ!! बस !! बस !! हम बनेंगे वह पुत्र!! अब तू और उलाहना मत दे। हमारी रगों में तेरा ही पवित्र रक्त है। हम अब तुझे देनेवाले ही बनेंगे। देश ने क्या दिया हमें, अब यह प्रश्न कभी न होगा। बस, एक बार हमें दिशा दिखा दे कि देनेवाला सपूत कैसे बनता है; क्या लक्षण होते हैं उसके; क्या करना है वैसा बनने के लिए, सो बता दे मेरी माँ! फिर देख कि तेरा एक-एक पूत क्या कर गुजरने की सामर्थ्य रखता है! अब तो हमें जीवन में तुझे देना ही है। तेरी सौगंध मेरी माँ, लेने के लिए अब तो केवल तेरा आशीर्वाद ही चाहिए।"

अपने जिगर के टुकड़ों के लिए उस निर्धन परंतु परम साहसी भारत माँ ने अपने बेटों की इस पुकार पर जो मार्ग दर्शाया है, उसी को लेखनी में उतारकर अपने भाइयों को भेंट करने का कर्तव्य मैंने पूरा किया है। आगामी पृष्ठों में उस परम तेजस्विनी, परम तपस्विनी माँ भारत की पुकार है, जो उसने अपने पुत्रों को संबोधित करके ही की है।

मार्टिन लूथर किंग ने कहा था "किसी राष्ट्र की शक्ति की परख इससे नहीं होती कि उसके कोषागार में कितनी दौलत जमा है। न इस पर निर्भर करती है कि उस राष्ट्र ने अपने बचाव के लिए कितनी किलेबंदी की हुई है। और न इस पर ही निर्भर करती है कि उस देश की अ‌ट्टालिकाएँ कितनी भव्य अथवा गगनचुंबी हैं। वरन् किसी देश की शक्ति का मूल आधार है तो केवल एक कि उस देश के सपुत कितने जागृत हैं, कितने पुरुषार्थी हैं, कितने चरित्रवान

आज हमें यह सुनने को मिलता है कि इस देश में चरित्र नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। मौलिक मान्यताएँ तो लुप्तप्राय हो गई हैं। कहीं कोई अनुशासन नहीं रह गया। स्वार्थ, आपाधापी, पदलोलुपता, भ्रष्टाचार, कालाबाजार, तस्करी, वैमनस्य, हिंसा और प्रतिहिंसा, बस इसी का चलन रह गया है। सत्य, सौंदर्य और शक्ति- ये सब केवल पैसों में आँकी जानेवाली वस्तुएँ बनकर रह गई हैं। पैसा ही सर्वोपरि मूल्य है। जिसके पास पैसा है, वही सर्वशक्तिमान है। और गरीब? गरीब को जीने का अधिकार नहीं है। अतः, पैसेवाला बनो, चाहे चोरी करके, तस्करी करके, या चाहे लूटकर। यही आस्था आज के समाज में घर-सी करती जा रही है।

पहले कहते थे- ईमानदारी ही सर्वोत्तम मार्ग है। आजकल सुनने में आने लगा है कि केवल नादान लोग ईमानदारी बरतते हैं। और शायद वह दिन दूर नहीं, जब कहा जाएगा कि बेईमानी ही सर्वोत्तम मार्ग है। इसमें संदेह नहीं कि जहाँ पहले 'रिश्वत' और 'घुस' जैसे शब्द सुनने मात्र से एक घृणा सी मन में उठती थी, वहाँ अब इसकी चर्चा खुलेआम करने में भी लोग अघाते नहीं हैं।

किसी को एक रुपया भी यदि बगैर मेहनत के मिल जाए तो उसे लेने से बाज आनेवालों की संख्या इतनी अल्प होती जा रही है कि सत्य और ईमानदारी में विश्वास रखनेवाले व्यक्तियों के मन में रह-रहकर यही बात उठने लगी है कि कहीं वास्तव में वे ही तो नादान नहीं है! पवित्र संस्कारों और आचरण से पुष्ट की गई सच्चाई और ईमानदारी में अच्छे-अच्छों की आस्था डिगती सी जा रही है।

पैसा कोई पाप है, ऐसा मैं नहीं मानता। सत्य तो यह है कि पैसे से ज्यादा पुनीत और पवित्र वस्तु शायद ही कोई हो। जब हमने खेतों में, खदानों में और मिलों में खून-पसीना बहाया, तब उससे जो उपलब्ध हुआ, उसी की एवज में वह पैसा हमारे पास आया। वस्तुतः पैसा हर इंसान के खून और पसीने का प्रतीक है। और मेहनत के पसीने से पवित्र तो शायद केवल गंगाजल ही हो तो हो। पैसा पाप तभी बनता है जब हमारी मेहनत, हमारे खून और पसीने की कीमत बगैर चुकाए हमारे पास आ जाए, अन्यथा पैसा पाप नहीं पवित्रतम् वस्तु है। यह पैसे की पवित्रता का ही द्योतक है कि यदि वह किसी पापी और चरित्रहीन के हाथों में आ जाता है तो पैसा उससे तत्काल दूर ही लेता है। अतः, पाप पैसे में नहीं, उस प्रवृत्ति में है, जो बगैर पूरी मेहनत किए पैसे को अपनाने की इच्छा रखती है।

Details of Book :-

Particulars

Details (Size, Writer, Dialect, Pages)

Name of Book:दिव्य मानव बनने की कुंजी | Divya Manab Banne Ki Kunji
Author:Bhartendu Prakash Singhal
Total pages:150
Language: हिंदी | Hindi
Size:2 ~ MB
Download Status:Available


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