Free Hindi Book Darakte Himalaya Par Dar-Ba-Dar In Pdf Download
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पुस्तक का संक्षिप्त विवरण:
है कि भारतीय मानस की बुनावट में कथा-परम्परा का ताना-बाना बहुत मज़बूत है, सत्य और उन कथाओं में मिथकों का। ऐसे में पुराकथाओं के संग प्रक्षेपित मतकालीन कात-
वेतना का अधुना सोच के साथ मुत्थमगुत्था होना अप्रत्याशित नहीं है। मुझ सरीखे निम्न मध्यवर्गीय भास्तवंशी का मानस भावनाप्रधान मिथक तथा तर्क प्रचोदित यथार्थ चेतना के मध्य पेंडुलम की भाँति डोलता है-पल में ऋषिकेश, पल में नासा ! पर ऐसा मैं अकेला थोड़े ही हैं, निर्मल वर्मा भी तो अपने पिता की अस्थियों गंगा को सौंपने के उपरान्त ही भारमुक्त महसूस करते हैं, और मगन गित निर्मल को मानसरोवर पहुँचाकर; घोषित वामपंथी महेश कटारे अपने यात्रा वृत्तान्त के प्रथम अध्याय को शीर्षक देते हैं 'देवलोक में तेरह दिन'! बक़ौल मैनेजर पांडेय ऐतिहासिक तथ्य के नाम से अब्रेसित, प्रथमद्रष्ट्या मानीखेज़ लगते आँकड़े, वस्तुतः एकतरफा होते हैं। इतिहास विजेताओं की गाथा का दूसरा नाम है, वह सिर्फ सामर्थ्यवान पर नज़र धरता है। अकिंचन को इतिहास यदि हाशिए पर कंजूसी से स्थान देता भी है तो विजेता के महिमामंडन हेतु, जबकि पुराकथाओं में पराभूत के स्वर भी सुनाई पड़ते हैं। किसी काल की मानीखेज़ विवेचना उस काल के इतिहास और उसी कालखंड में सिरजी कथाओं, मान्यताओं, मिथकों, भीतों, दन्तकथाओं को सटाकर देखने से ही की जा सकती है।
दरअसल, इतिहास देता है निरन्तरता का बोध, भूगोल दिखलाता है हमारी बारहदरी की परिधि-दोनों से साक्षात्कार बिन ज़िन्दा मनुष्य किसी बिन्दु की तरह आयामहीना समय साक्ष्य देगा कि आधुनिक काल को उसका इतिहास एवं अधुना संतति को अन्तरिक्ष तक फैलता भूगोल यायावरों का दिया तोहफा है। जहाँ घुमन्तू नहीं पहुँचा, उस स्थल की जन्मकुंडली में खोट - उसका ज वर्तमान, न अतीत, न भविष्या कोलंबस, वास्कोडिगामा या हेनसांग कोई भी कहीं औचक नहीं पहुंचता। अनावृत होने को तैयार भूखंड व्योतते हैं यायावरों को, जैसे रति आतुर पुष्प बुला भेजता है भँवरे को। पर उस धरा का क्या हश्र जिसके भेजे नामे अवितरित ही लौट आएँ? हमारा उत्तराखंड कुछ ऐसा ही तो हैं।
यायावर तो भारतवर्ष में अनेक हुए, कई बाहर से भी आए पर जाने क्यों उत्तराखंड उन्हें आकृष्ट न कर पाया। बावजूद इसके कि हिन्दू धर्म की लगभग हर कथा किसी-न-किसी तरह हिमालय के इस क्षेत्र से जुड़ी मिलती है। हिन्दुत्व का मर्म समझने की कांक्षा लिये फिरते घुमन्तृ धर्मग्रन्थों से दृष्टान्त तो उठाते रहे पर उत्तराखंड की निस्तीर्ण, औघड़ भूमि पर पम धरने का साहस कुछ एक साधु-संन्यासियों के अतिरिक्त शायद ही कोई कर पाया।
मध्यकाल के उत्तरार्थ में अंग्रेज़ों की सैन्य टुकड़ियों के संग भाड़े पर चल रहे छद्म इतिहासकारों ने अपनी ब्रितानी दृष्टि से देखा हाल अवश्य दर्ज किया। सब एक सोची-समझी योजना के तहत संचालित था। इस योजना की कुछ भनक 'मैकमिलॉन' पत्रिका में प्रकाशित पत्रों को बाँचने से मिलती है। आवाम में एहसास-ए-कमतरी का रोग फैले, वह सिर झुका अंग्रेज़ियत को स्वीकार कर ले, वह अपनी संस्कृति (अतीत) को नकार दे, इस लक्ष्य को पाने के मंतव्य से गठित समिति को पवित्र-सा नाम दिया: 'कमिटी ऑफ पब्लिक इन्स्ट्रक्शंस' (1835) जो यथार्थतः हिन्दुस्तान में शिक्षा का माध्यम तय करनेवाली थी। मठित समिति के अध्यक्ष मैकाले के कुछ उदार यहाँ उद्धृत करना बेजा न होमा :
.... यूरोपियन पुस्तकालय की अलमारी का एक खाना समस्त भारतीय और अस्थी साहित्य से भारी पड़ता है। इस समिति के सदस्य पाधात्य साहित्य की अन्तर्निहित उनमता को बिना शुबद्ध स्वीकार करते हैं...'
.... मैं बेहिचक यह कहता हूँ कि संस्कृत में लिखी सारी किताबों से एकत्र जानकारी हमारे नर्सरी स्कूलों की पुस्तकों में दी जानकारी से भी कमतर दें... फिर वाढे वह बात इतिदास की हो, ज्ञान-विज्ञान की दो किंवा दर्शन की...'
'... बदलाव बूढ़ी औरतों के मुख से सुनी उन कथाओं को दोडसकर, जिन पर उनके जंगली पुरखे भरोसा किया करते थे, जीं आएगा...'
.....मैं फौरन संस्कृत और अरबी पुस्तकों की छपाईं बन्द करवाने का वादा करता हूँ... मैं बनारस और कलकता के कॉलेजों में इन भाषाओं के विद्यार्थियों के वजीफे बन्द करवा देंगा...'
'हालांकि उन सभी सदस्यों का, जो भारत में भास्तीय भाषाओं के जरिये शिक्षा दिये जाने के समर्थक हैं, मैंने विरोध किया है, पर उनके इस तर्क से पूर्णरूपेण सहमत हूँ कि ढग इतने बड़े आवाम को एक साथ अंग्रेज़ी में टीक्षित करने में होनेवाले खर्च का वहन करने में असमर्थ ही अतः हमें हमारे आवाम (मुलाम?) में से कुछ को तैयार करना होगा जिनका रंग और लहू तो भारतीय दो पर जिनके मत, तर्क, टर्जन और बुद्धि में अंग्रेज़ियत हो... कालान्तर में वे ही पश्चिम से उधार लिया ज्ञाल जन-जन तक पहुंचाने का साधन सिद्ध होंगे...'
मैकॉले की योजना ने आशातीत सफलता पाई। जो सहेजा था पीढ़ियों ने जी-जान लगा, जो छुपाकर रखा था बरसों बरस अन्तस की किसी गुप्त अटारी में, वह पुश्तैनी सब अटाले में बदल गया। भारतीय संस्कृति के गर्भनात से जुड़ी कथाएँ नवशिक्षितों द्वारा खारिज कर दी गड़ी सिद्धपुरुषों का रवित फंतासी मान नकार दिया गया और 'स्वार्थान्धों का प्रलाप' सटीक मान शिरोधार्य हुआ!
किन्तु मैकाले जैसे बौद्धिक उपनिवेशवाद फैलाने वाले आततायी अवसर भूल जाते हैं कि शातिस्तम ठग भी आदमी से उसका सारा अतीत नहीं चुरा सकता- कनस्तर से माल खाली किया जा सकता है, उसकी बू नहीं! बू जो सन्नद्ध करती है आगामी सन्तानों को मुम सम्पदा की तलाश में। सो जब हम पूर्वजों का मखौल उड़ा रहे थे तभी कुछ देशी-परदेशी पुराविज्ञानी वेद-पुराणों में आए भौगोलिक संकेतों को बूझने का प्रयास करते हुए व्यतीत की सीमाओं तक जा पहुँचे- 'बुढ़िया' की कथाओं पर भरोसा रख विलुप्त सरस्वती नदी को तलाश लिया, कुरुक्षेत्र के अवशेष ढूँढ़ निकाले! कालान्तर में पर्वतारोहण की असीमित सम्भावनाओं से आकृष्ट हो इधर आए बंधुओं के लिखे ने भी उत्तराखंड से आधा-अधूरा न्याय ही किया। सौभाग्य से वर्तमान काल में उत्तराखंड की ओर कुछ संस्कृति-चिन्तक और मेधावान परिसारकों का ध्यान गया, जिनमें नागार्जुन, विष्णु प्रभाकर के नाम सरेफेहरिस्त हैं। किन्तु इनके क़दम भी इथर की दुर्निवार, नितान्त निर्जन वादियों के पहले ही थम गए, नतीजतन दुर्गम दैवभूमि के बाबद जानकारियाँ आज भी अधूरी हैं, विक्षेपण का शिकार हैं। मेरा मत है, जब तक हम हमारी पुराकथाओं को हेय मान नकारते रहेंगे, तब तक हम स्वयं को समग्रता से जान न सकेंगे। अद्यकाल यानी भविष्य तथा अतीत के मध्य का कालखंडों में लघुतम- कोहराम-भरा विराम स्थल, जहाँ खड़े होकर जो व्यतीत पर दृष्टि न डाली तो भविष्य का खंड-खंड होना तय है।
Details of Book :-
Particulars | Details (Size, Writer, Dialect, Pages) |
|---|---|
| Name of Book: | दरकते हिमालय पर दर-ब-दर | Darakte Himalaya Par Dar-Ba-Dar |
| Author: | Ajoy Sodani |
| Total pages: | 189 |
| Language: | हिंदी | Hindi |
| Size: | 12 ~ MB |
| Download Status: | Available |
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