कृष्णायन | KRISHNAYAN HINDI BOOK FREE PDF DOWNLOAD

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पुस्तक का संक्षिप्त विवरण:

पी पल के पेड़ के नीचे सोए हुए कृष्ण की आँखें बंद थीं। तरह-तरह के दृश्य उनकी आँखों में आते और निकल जाते।

द्वारका का वह महालय कुरुक्षेत्र का युद्ध, द्रौपदी स्वयंवर, रुक्मिणी-हरण और प्रभासक्षेत्र की तरफ जाते समय देखी हुई सत्यभामा की आँखें कभी आगें तो कभी पीछे समय-चक्र को हिलाते व्यक्ति और दृश्य उनके स्मृतिपट पर आते और विलीन हो जाते थे पीपल का पेड़ ऐसा लग रहा था मानो शेषनाग अपना फुन् फैलाए उनके माथे पर छाया कर रहा हो। वहीं सामने हिरण्य, कपिला और सरस्वती नदियाँ तीन दिशाओं में से कल-कूल करती बह रही थीं। ये त्रिवेणी संगम की वह पवित्र भूमि थी, जो सोमनाथ मंदिर के पास थी। प्रभासक्षेत्र नाम से प्रसिद्ध इस स्थान में कला और साहित्य का बेहद सम्मान होता था। अभी तो कुछ समय पूर्व ही सोमनाथ मंदिर के पुनरोत्थान का कार्य श्रीकृष्ण ने किया था। मंदिर को सोने-चाँदी से सुजा दिया था। यादवों ने अभी कुछ ही समय पूर्व इस मंदिर में पूजा-अर्चना की थी।

और इस क्षण पीपल के पेड़ के नीचे बैठे श्रीकृष्ण आँखें बंद कर बीते हुए एक-एक पल को निहार रहे थे। उनके शरीर से भयानक पोंड़ा की एक लहर दर्द दे गुजरती थी। ऐसा लगता था मानो हजारों बिच्छू एक साथ उन्हें डंक मार रहे हैं।

उनके सामने हाथ जोड़कर जरा बैठा था पैर में लगे तीर के कारण टपकते हुए खून का मानी एक छोटा सा तालाब बन गया था।

प्रभासक्षेत्र के जंगलों में से त्रिवेणी संगम तक आते-आते तो मानो कृष्ण को सदियाँ लग गई थीं।

माता गांधारी का शाप दुर्वासा का शाप निष्फल कैसे जाते !

एक के बाद एक उन‌के भाई, चाचा, भतीजे, पुत्र, पौत्र, मित्र और स्नेहीजन सबके सब महाकाल की भयंकर ज्वाला में समाप्त हो जाने वाले थे और आखिर में वे खुद भी इसी दिशा में प्रयाण करने वाले थे।

सबकुछ जानते हुए भी कृष्ण असहाय यन यह सारी परिस्थिति साक्षी-स्वरूप देख रहे थे। हाँ, इस क्षण तक भी उनके मस्तिष्क में मौत के मुंह में जाते हुए यादवों की अंतिम चीखें, रुदन सुनाई पड़ता था। "एक-दूसरे को जूठे बरतन मार, मुँह से काट-काटकर एक-दूसरे को मृत्यु के मुँह में धकेलते यादवों के करुण दृश्य देखने का दुर्भाग्य क्यों उन्हें मिला होगा?" कृष्ण सोच रहे थे। नरसंहार, रक्तपात और विनाश उनके मन को संताप की अग्नि से जला रहे थे, "क्या अर्जुन का कथनं सत्य थौ? कुरुक्षेत्र के मैदान में शस्त्र न उठाकर कृष्ण ने संहार नहीं किया था, यह बात सत्य है; लेकिन इस युद्ध में हुए भाई-बंध, चाचा-भतीजे आदि को मार प्राप्त किया हुआ राज्य क्या व्यर्थ था? अगर यह सचमुच नहीं था तो क्यों पांडवों सहित कोई भी सुख की नींद नहीं सो सकता था? कुरुक्षेत्र के युद्ध के बाद धर्म की विजय तो हुई थी शायद पर क्या अधर्म का सचमुच् नाश हो गया था?" श्रीकृष्ण के मन-मस्तिष्क में तरह-तरह के विचार नदी में उठ रहे प्रवाह की तरह हिलोरें लेते आ-जा रहे थे।

किसलिए आ लए आ रहे थे ये विचार? क्यों शांत नहीं हो पा रहा था मन?

"क्या जीवन-समाधि की अंतिम घड़ियाँ ऐसी ही होती हैं?" कृष्ण को एक दूसरा विचार आ गया। असंख्य शब्द, सैकड़ों पलु, अन्ङ्गिन्त आँखें और उन आँखों में डूबते-तैरते कैसे-कैसे भाव कृष्ण को एक पल के लिए भी विचारहीन नहीं होने दे रहे थे।

जैसे ही वे ध्यानमग्न होने लगते वैसे ही उनका ध्यान विचलित होने लगता वे ध्यानमग्न हो समाधि में लीन हो जाना चाहते थे। वे अपनी आत्मा को जगन्नियंता परम ब्रह्म में आत्मलीन कर अपनी अंतिम यात्रा को सरल बनाना चाहते थे; परंतु एक-एक विचार इस तरह से उठता कि उन्हें सिर से पाँव तक हिला जाता, विचलित कर जाता। अभी एक विचार मन से हटता नहीं कि दूसरा विचार खड़ा हो जाता और कृष्ण का मन छिन्न-भिन्न कर डालता।

यह आत्मा, जो जो निरंतर साधुत्व, समाधि और स्वीकार में जीवंत रही, क्य में जीवंत रही, क्यों आज इतनी इतनी विचलित, परेशान थी? क्या था, जो उन्हें इतना कष्ट पहुंचा रहा था? जिसे समय ने स्वये 'ईश्वर' कहकर सम्मानित किया, पूर्ण पुरुषोत्तम के रूप में पहचाना, वह खुद आज अपने पूर्णतत्त्व की प्राप्ति हेतु संघर्ष कर रहा था।

कैसे बचा सकते थे कृष्ण स्वयं अपने आपको?

स्वयं जब मान्व-रूप में जन्म लेते हैं ईश्वर तब अपनी किस्मत के लेख के सामने कितने लाचार-असहाय हो जाते हैं? तो बेचारे मनुष्य की इस बारे में क्या बिसात?

यादव-वंश अभी-अभी ही खत्म हुआ था। भाई-बंधुओं, पुत्रों और प्रपौत्रों के क्षत-विक्षत शव अभी प्रभासक्षेत्र के जंगलों में ही बिखरे पड़े थे।

वहाँ से थोड़ी दूर हिरण्ये, कपिला और सरस्वती के संगम स्थल पर सूरज उगने की तैयारी थी। आकाश रक्त-वर्ण हो चुका था। फर-फर करती ठंडी हवा बह रही थी। पीपल के पत्ते पवन के साथ बहते कृष्ण की पीड़ा का संदेश दसों दिशाओं में फैला रहे थे। पिघलता अँधेरा और रक्तिम आकाश ऐसा लग रहा था, मानो चिता की ज्वाला आकाश में कोई आकार रच् रही हो। हजारों ब्राह्मण मानो एक साथ वेदों का गान कर रहे हों, ऐसी चारों दिशाओं में ध्वनि की गूंज सुनाई पड़ रही थी।

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ।।

मेयू ही सनातन अंश इस मृत्युलोक में जीव बनकर प्रकृति में निहित पाँच इंद्रियों व छठा मन अपने अंदर विलोपित करता है, खींचता है।

मृत्यु-जीवन अथवा जीवन से भरपूर मृत्यु इन दो के बीच के सत्य की कशमकश भी जिसे व्यक्ति समझ नहीं पाया, आज स्वयं इस उलझन में फैसे सत्चिदानंद में लीन होते देख कृष्ण बेचैन हो रहे थे। महासंहार के वीच् जिस सनातन ने अपने अजर-अमर, आदि-अनादि अस्तित्व के दर्शन विश्व को करवाए, आज वहीं सनातन अपने ही अंश, जिसे मृत्युलोक में मानव-रूप लेकर भेजा था उसे, अब अपनी तरफ वापस बुला रहे थे तो जाने क्यों कृष्ण को द्रौपदी का कहा हुआ कथन स्मरण हो आया।

त्वदीयं वस्तु गोविन्दं तुभ्यमेव समर्पये।

कृष्ण आँखें बंद किए जिया हुआ जीवन एक बार फिर जी रहे थे। अभी उन्हें यह समझ नहीं आया था कि द्रौपदी ने ऐसा क्यों कहा था?

उस दिन अचानक दुवारका से हस्तिनापुर जाते हुए द्रौपदी ने कहा था। पीड़ा से गला भर गया था उसका, लेकिन आवाज स्थिर थी। आँखें खाली खाली थीं, तथापि द्रौपदी के शब्दों

का गर्गीलापन कृष्ण अनुभव कर सके थे।

आपने ही कहा था न? संशयात्मा विनश्यति।"

. हे सखा! यह सत्य ही है, ज्ञान प्रश्न उत्पन्न करता है। हाँ, सारा जीवन एक प्रश्नावलि की तरह ही व्यतीत कर दिया है मैंने और हर प्रश्न प्रत्यंचा की तरह मुझे ही सालता रहा है। मेरे प्रश्न वेदना के तीक्ष्ण बाण बनकर मेरे ही प्रियजनों को बेधते रहे, रक्त-रंजित करते रहे मेरा संशय, मेरे ही प्रश्न मेरी आत्मा को विनाश की तरफ ले गए मेरे ही प्रियजनों को दुःख देता रहा, अब मुझे मुक्त करो संशय में से, प्रश्नों में से, वेदना में से

देता उ रहीं थीं। ये लहरें मन के कोनों से टकरा कृष्ण के मन में आज किंतनी ही बातें समुद्र की लहरों की तरह उठ रहीं झाग वन बिखर रही थीं, लेकिन आज क्यों वे बातें स्मृति-पट पर छा रही हैं? यहाँ इस परिस्थिति में? मुक्त होने के क्षणों में बंधन क्यों याद आ रहे थे?

द्रौपदी जब मुक्ति प्राप्त करने की प्रार्थना ले आई, तब कृष्ण खुद कहाँ मुक्त थे? अभी तो कितने प्रश्नों के उत्तर देने बाकी थे एक के बाद एक सब अपने अधिकार माँगने वाले थे, सभी उन्हें बंधनों में बाँधने वाले थे सभी से उन्हें मुक्ति माँगनी थी शायद सबको मुक्ति देकर स्वयं को मुक्त करने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी।

"पृश् की मौत मरेगा एक्दम अकेला, असहाय और पीडित।" माता गांधारी ने कुरुक्षेत्र के युद्ध से वापस गांधारी से मिलने आए कृष्ण से कहा था। हृदय को हिला दे इतनी भयंकर पीड़ा थी उस आवाज में। न जाने क्यों कृष्ण की यह आवाज गोकूल से निकलते समय सुनी यशोंदा की आवाज में मिश्रित होती-सी लगी, "पुत्र-वियाँग की पीड़ा एक जैसी ही होती होगी। युग कोई भी हो और माँ कोई भी।"

गांधारी ने कहा था, "निन्यानवे पुत्र खोए हैं मैंने। दुर्योधन की जाँघ से बहता लहू अभी भी मेरे पैर भिगो रहा है थक जाती हूँ अपने पैर धुला-भुलाकर दुःशासन का धड़ से अलग हुआ हाथ आधी रात को मुझे बुलाता है कृष्ण, तुमने यह ठीक नहीं किया।" सर्वकुछ जानने के बावजूद कुंती ने भी कृष्ण को ही जिम्मेदार ठहराया था।

Details of Book :-

Particulars

Details (Size, Writer, Dialect, Pages)

Name of Book:कृष्णायन | Krishnayan
Author:Kaajal Oza Vaidya
Total pages:109
Language: हिंदी | Hindi
Size:2 ~ MB
Download Status:Available


Krishnayan written by Kaajal Oza Vaidya | Ebook size 2 MB | Includes 109 Pages | Find the free PDF download link of “Krishnayan” below and read it right away.

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