Free Hindi Book Gita Prabandh In Pdf Download
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पुस्तक का संक्षिप्त विवरण:
संसार में कितने ही ग्रंथ हैं-वैदिक और लौकिक भी; कितने ही आगम-निगम और स्मृति-पुराण हैं; कितने ही धर्म और दर्शन-शास्त्र हैं; कितने ही मत, पंथ और संप्रदाय हैं। अधकचरे ज्ञानी अथवा सर्वथा अज्ञानी मनुष्य अपने विविध मनों से इनमें से किसी एक में ऐसी अनन्य-बुद्धि और आवेश से स्वयं को बाँध लेते हैं कि जो कोई जिस ग्रंथ या मत को मानता है, उसी को सब कुछ समझता है। वह यह देख भी नहीं पाता कि इसके परे भी कुछ है। वह अपने चित्त में ऐसा हठ पकड़ लेता है कि बस यही या वही ग्रंथ भगवान् का सनातन वचन है और बाकी सब ग्रंथ या तो ढोंग हैं, या यदि उनमें कहीं कोई भगवत्प्रेरणा या भाव है भी, तो वह अधूरा है। इसी प्रकार वह यह मान बैठता है कि हमारा अमुक दर्शन ही बुद्धि की पराकाष्ठा है-बाकी सब दर्शन या तो भ्रम हैं, अथवा उनमें यदि कोई आंशिक सत्य है भी, तो वही जो उनके एकमात्र सच्चे दार्शनिक संप्रदाय के अनुकूल है।
भौतिक विज्ञान के आविष्कारों का भी एक संप्रदाय-सा बन गया है, और उसके नाम पर धर्म तथा अध्यात्म को अज्ञान और अंधविश्वास कहकर, तथा दर्शन-शास्त्रों को कूड़ा-करकट और खयाली पुलाव कहकर खारिज कर दिया गया है। और, बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि बड़े-बड़े बुद्धिमान लोग भी प्रायः इन पक्षपातपूर्ण आग्रहों और व्यर्थ के झगड़ों में पड़कर इन्हें पुष्ट करते रहे हैं। कोई तमोभाव ही उनके निर्मल सात्त्विक ज्ञान के प्रकाश में मिलकर, उसे बौद्धिक अहंकार या आध्यात्मिक अभिमान से ढक देता है और उन्हें इस प्रकार भटका देता है।
अब अवश्य ही, मानव-जाति पहले की अपेक्षा कुछ अधिक विनयशील और समझदार होती हुई दिखाई देती है। अब हम अपने भाइयों को ईश्वरीय सत्य के नाम पर कत्ल नहीं करते; न ही इस कारण मारते हैं कि उनके अंतःकरण की शिक्षा-दीक्षा हमसे भिन्न है, या उनके अंतःकरण का सांचा-ढाँचा कुछ और प्रकार का है। अब हम अपने पड़ोसियों को अपनी राय से भिन्न राय रखने पर कोसने या भला-बुरा कहने में कुछ सकुचाने लगे हैं। अब तो हम यह भी स्वीकार करने लगे हैं कि सत्य सर्वत्र है, केवल हम ही उसके ठेकेदार नहीं हैं। अब हम दूसरे धर्मों और दर्शनों को भी देखने लगे हैं, केवल इसलिए नहीं कि उन्हें झूठा साबित कर बदनाम करें, बल्कि इसलिए कि देखें कि उनमें कहाँ क्या सदुपदेश है और उससे हमें क्या सहायता मिल सकती है।
फिर भी, यह कहने का अभ्यास अभी तक बना हुआ है कि हम जिसे सत्य मानते हैं, वही परम ज्ञान है, जो अन्य धर्मों या दर्शनों को नहीं मिला-और यदि मिला भी है, तो केवल अंशमात्र और अधूरे रूप में। अर्थात्, उनमें सत्य के केवल वे गौण और निम्नतर अंग ही प्रतिपादित हैं, जो कम विकसित लोगों के लिए उपयोगी हैं या उन्हें हमारी ऊँचाइयों तक उठाने हेतु निम्न साधनमात्र हैं। हमारी प्रवृत्ति अब भी ऐसी ही बनी हुई है कि जिस किसी ग्रंथ या उपदेश का हम आदर करते हैं, उसी को संपूर्ण रूप से ब्रह्मवाक्य मानकर सिर-आँखों पर रखते हैं, और इसी रूप में उसे दूसरों पर भी जबर्दस्ती लादना चाहते हैं, इस आग्रह के साथ कि यह सम्पूर्णतः स्वतःप्रमाण सनातन सत्य है-इसके एक अक्षर या मात्रा को भी इधर-उधर नहीं किया जा सकता, क्योंकि ये सभी उसी एक अपरिमेय प्रेरणा के अंश हैं।
इसलिए, वेद, उपनिषद् अथवा गीता जैसे प्राचीन ग्रंथ का विचार करते हुए, आरम्भ में ही यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि हम किस विशिष्ट भाव से इस कार्य में प्रवृत्त हो रहे हैं, और हमारी समझ में इससे मानव-जाति तथा उसकी भावी संतति को क्या वास्तविक लाभ हो सकता है। सबसे पहली बात...
Details of Book :-
Particulars | Details (Size, Writer, Dialect, Pages) |
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Name of Book: | गीता प्रबंध | Gita Prabandh |
Author: | Sri Aurobind |
Total pages: | 641 |
Language: | हिंदी | Hindi |
Size: | 49 ~ MB |
Download Status: | Available |
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